मंगलवार 7 अक्तूबर 2025 - 16:50
मआरिफ़त ए नफ्स के बग़ैर कोई भी रूहानी अमल कमाल तक नहीं पहुँच सकता। हुज्जतुल इस्लाम फरहज़ाद

हौज़ा / हज़रत मासूमा (स.ल.) के हरम ए मुक़द्दस के खतीब हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हबीबुल्लाह फरहज़ाद ने कहा है कि मआरिफ़ते-नफ्स इंसान की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी और मआरिफ़ते-खुदा की बुनियाद है क्योंकि जो अपने आप को पहचान ले वह अपने रब को भी पहचान लेता है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हज़रत मासूमा (स.ल.) के हरम ए मुक़द्दस के खतीब हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हबीबुल्लाह फरहज़ाद ने कहा है कि मआरिफ़ते-नफ्स इंसान की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी और मआरिफ़ते-खुदा की बुनियाद है क्योंकि जो अपने आप को पहचान ले वह अपने रब को भी पहचान लेता है।

हरम में संबोधन के दौरान उन्होंने अल्लाह की याद (ज़िक्र), तवस्सुल और आत्म-ज्ञान के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ईश्वर की याद आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला है, लेकिन इसकी वास्तविक आत्मा तब जागृत होती है जब मनुष्य अपने आंतरिक स्वयं को पहचानता है।

उन्होंने इमाम रज़ा अ.स. की हदीस-ए सिलसिलतुज़ ज़हब का हवाला देते हुए कहा कि ज़िक्र "ला इलाहा इल्लल्लाह"अल्लाह दंड से मुक्ति का मजबूत किला है, लेकिन इसकी शर्त अहले बैत (अ) की विलायत है, क्योंकि विलायत से इनकार वास्तव में तौहीद के इनकार के बराबर है।

नैतिकता के शिक्षक ने  दरूद व सलवात को सभी ज़िक्र का सार बताते हुए कहा कि मरहूम आयतुल्लाह बहजत (रह) इस ज़िक्र के निरंतर पाठ पर विशेष जोर दिया करते थे।

उन्होंने इमाम सादिक (अ.स.) की एक रिवायत का उल्लेख करते हुए कहा कि ईश्वर अपने बंदों से केवल दो चीजों का दावा करता है; एक अपनी नेमतों का स्वीकार ताकि नेमतों में वृद्धि हो, और दूसरा पापों का कबूल ताकि क्षमा प्राप्त हो सके।

हुज्जतुल इस्लाम फरहजाद ने आगे कहा कि आत्म-ज्ञान मनुष्य के लिए पूर्णता का मार्ग है, जैसा कि हज़रत अली (अ.स.) फरमाते हैं जिसने अपने आप को नहीं पहचाना, उसने सब कुछ पहचाना।"

उन्होंने पवित्र कुरआन की आयत
«إن أحسنتم أحسنتم لأنفسکم وإن أسأتم فلها»
अगर तुमने अच्छा किया तो अपने लिए किया और अगर बुरा किया तो भी अपने ही लिए की तिलावत करते हुए कहा कि मनुष्य का हर अच्छा या बुरा कर्म सबसे पहले स्वयं उसी पर प्रभाव डालता है, यहाँ तक कि अगर पाप के बाद तौबा कर ली जाए तो वह भी ईश्वरीय दया का माध्यम बन जाता है।

उनका कहना था कि नमाज, ज़िक्र और इबादतें वास्तव में स्वयं मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए हैं, क्योंकि ईश्वर को इनकी आवश्यकता नहीं है।

अंत में उन्होंने जोर देकर कहा कि "आत्म-सुधार, आत्म-ज्ञान के बिना संभव नहीं है। यदि मनुष्य आत्म-ज्ञान तक नहीं पहुँचता तो वह बंदगी, नैतिकता, तवस्सुल और कुरआन की वास्तविकता को भी समझ नहीं सकता।

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